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पुतलों का शहर

सरकते सायों से भरी दुनिया में
एक पुतलों का शहर है
जहाँ करोड़ों की भीड़ में
बस तन्हाई का सहर  है ।

कोई किसी का है नहीं यहाँ
न साहिल है न कोई किनारा
हिम्मत टूटने पर भी तैरना होता है यहाँ
डूबते को तिनके का भी न सहारा ।

रूस्वियों की रौनक से रौशन
हर दिल को चोट देने की आदत है
कागज़ के फूलों से सजा गुलशन
हर मुसाफिर को कुछ पलों का धोका देता है ।

सारे चेहरे मांगे हुए लगते हैं
मुस्कान में भी जैसे फरेब भरा
मुखौटों की फेर-बदल चेहरे करते हैं
आँखों में आंसू टांगकर, करते उन्हें दर्द भरा ।

नीची बहुत हैं ये ऊँचाइयों की राहें
दोहरा जीवन जीने की क्यूँ मजबूरी है
हम क्यूँ किसी का विश्वास करना चाहें
जो पास है जितना उससे उतनी ही दूरी है ।

यहाँ की रात भी अपनी नहीं होती
काजल से कारी, कोयले से काली
चाँद के जलने पर भी नींद नहीं आती
अब्रू के दियों से होती है दिवाली ।

दिल में सबके पत्थर की प्रतिमा बसती है
महत्वकांक्षा की हैं सब कठपुतलियां
बिच्छू बन एक दुसरे को दस्ती हैं
गिरगिट के रंगों के पंखों वाली तितलियाँ ।

बाज़ारों में लखते-जिगरों का सौदा होता
ये शहर ज़मीर के कारोबार पर चलता है
ख़ूबसूरत बाहर से जितना यह लगता
अन्दर से उतना ही खोकला है ।

घुटन की हवा में सांस लेता यह शहर
प्रतिदिन एक मुर्दे को जन्म देता है
हर क्षण एक सुन्हेरे सपने की हत्या कर
तुच्छ अहंकार के महल बनता है।

महल रुपी इन खंडरों की भूलभुलैया में
हर व्यक्ति आत्मीयता खो देता है
इस बेजान शहर के रंगीन मेले में
हर आने वाला पुतला बन जाता है ।

हाँ ! बेजान बुत ही तो हैं ये सारे
बस मतलब की भाषा बोलते हैं
शौकत की नीलामी के मारे
कभी दूसरों की तो कभी खुद के बोली लगाते हैं ।

Categories: मेरी रचनाएँ | 4 Comments

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